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दिहाङी मजदूर (कविता) CONTEST

ijhaaredil
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कपङे के टुकङे मेँ
लपेटकर
चन्द रोटियाँ,
सुबह सवेरे
छोङकर गाँव
काम की तलाश मेँ
शहर आ जाते हैँ,
फिर चौराहे पर
खङे होकर
निगाहेँ खोजती
कोई श्रम का क्रेता,
हर रईस से व्यक्ति को
देखते ही
चेहरे पर नूर,
आँखोँ मेँ चमक,
उम्मीद पूरी होने
का अहसास,
दिन भर
जी तोङ मेहनत,
सीमेन्ट, रेत का मिश्रण बनाना,
परातेँ उठाना,
ईटेँ ढोना,
शाम घर लौटते समय
मजदूरी के पैसोँ से
आटा, नमक, तेल
खरीद घर लौटना,
बाट जोहते
पत्नी, बच्चे
प्रतीक्षा करते
चूल्हा और बर्तन,
थका हुआ बदन
करके भोजन
सो जाना,
सुवह उठते ही
जीवन का वही क्रम,
किसी-2 दिन
किस्मत
दगा दे जाती है,
काम नहीँ मिल पाता है,
उस शाम
घर पर
चूल्हा भी सुस्ताता है ।

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